सोमनाथ की कंपनी को 31 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर ले जाया गया। उनका बायें हाथ पर पहले हॉकी मैदान में घायल होने की वजह से प्लास्टर लगा हुआ था, लेकिन लड़ाई में उनहोंने कंपनी के साथ रहने पर जोर दिया और उन्हें जाने के लिए अनुमति दे दी गई ।
3 नवंबर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की कंपनी (4 की डी कंपनी कुमाऊं) कश्मीर घाटी में बड़गाम गांव के लिए एक फाईट पेट्रोल पर जाने का आदेश दिया गया था। 700 हमलावरों की एक आदिवासी “लश्कर” गुलमर्ग की दिशा से बड़गाम की तरफ बढ़ी। शर्मा की कंपनी जल्द ही तीन तरफ से घिर गई और दुश्मन द्वारा आगामी मोर्टार, बमबारी होती रही। सोमनाथ को तब अपने पोस्ट के महत्व का एहसास हुआ कि अगर ये पोस्ट खो दिया गया तो दोनों श्रीनगर के शहर और कस्बे दुश्मन की चपेट में हो सकता है। भारी गोलाबारी और अपने से सात गुना बड़े दुश्मन से लड़ने के लिए वो लगातार अपने सैनिकों को उत्साहित करते रहे।
जब उनकी कंपनी में जवानों की भारी क्षति हुई, तब उन्होंने हाथ में प्लास्टर होने के बावजूद खुद लाइट मशीन गन संभाल लिया। वह दुश्मन से लड़ने में व्यस्त थे तभी एक मोर्टार शेल उनके पास के गोला बारूद पर विस्फोट हो गया। ब्रिगेड मुख्यालय के लिए अपने अंतिम संदेश में कुछ क्षणों पहले उन्होंने कहा था कि “दुश्मन हम से केवल 50 गज की दूरी पर है, हमारी संख्या काफी कम है, हम भयानक गोलाबारी के बीच लड़ रहे हैं। मैं तब तक एक इंच वापस नहीं हटूंगा जब तक हमारे पास आखिरी आदमी लड़ने के लिए है और राउंड गोली।
बटालियन कुमाऊं रेजीमेंट की राहत कंपनी बड़गाम पहुंचे लेकिन तब तक दुश्मन ने पोस्ट जीत लिया था। हालांकि, 200 हताहत का सामने करने के बाद दुश्मनों का हौसला टूट गया और तब तक भारतीय सेना की अन्य टुकड़ियां वहां पहुंच गई थी। इस तरीके से सोमनाथ शर्मा श्रीनगर को या पिर यूं कहें कि कश्मीर को दुश्मन के हाथ में जाने से रोका।
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